नमस्ते, प्रिय पाठकों
आपका स्वागत है भगवद गीता के तीसरे अध्याय में, जिसे “कर्मयोग” के नाम से जाना जाता है। पिछले अध्याय में, श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मा की अमरता और कर्मयोग के महत्व का ज्ञान दिया था। अब तीसरे अध्याय में, श्रीकृष्ण कर्म के रहस्य को विस्तार से समझाते हैं।
यह अध्याय हमें सिखाता है कि केवल ज्ञान प्राप्त करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसे कर्म में बदलना भी उतना ही आवश्यक है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि निष्काम भाव से किया गया कर्म (फल की इच्छा से रहित कर्म) हमें न केवल धर्म के मार्ग पर ले जाता है बल्कि जीवन के उच्चतम उद्देश्य को प्राप्त करने में भी सहायता करता है।
Table of Contents
आइए, इस अध्याय के माध्यम से कर्म, कर्तव्य और समर्पण की गहराई को समझें और जानें कि हमारे जीवन में कर्मयोग का क्या महत्व है।
धन्यवाद
Bhagwat Geeta Chapter 3 कर्मयोग – श्लोक 1 – 10
श्लोक 1
अर्जुन उवाच:
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन |
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव || 3.1 ||
अर्थ:
अर्जुन बोले: हे जनार्दन, यदि बुद्धि (ज्ञान) कर्म से श्रेष्ठ है, तो हे केशव, आप मुझे इस घोर कर्म (युद्ध) में क्यों प्रवृत्त कर रहे हैं?
व्याख्या:
इस श्लोक में अर्जुन अपने संशय को व्यक्त करते हैं। वह पूछते हैं कि यदि ज्ञान को श्रेष्ठ बताया गया है, तो उन्हें युद्ध जैसे कर्म में क्यों लगाया जा रहा है। अर्जुन के इस प्रश्न से पता चलता है कि वह ज्ञान और कर्म के बीच का संबंध पूरी तरह से समझ नहीं पाए हैं।
Explanation in Hindi:
अर्जुन इस श्लोक में स्पष्ट करते हैं कि वे ज्ञान को ही श्रेष्ठ मानते हैं और यह समझ नहीं पाते कि उन्हें युद्ध जैसे घोर कर्म में क्यों प्रवृत्त किया जा रहा है। यह उनके मानसिक द्वंद्व को दर्शाता है।
Explanation in English:
In this verse, Arjuna expresses his confusion. He questions why he is being urged to engage in a dreadful act like war if wisdom (knowledge) is considered superior to action. This reflects his inner conflict.
श्लोक 2
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे |
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् || 3.2 ||
अर्थ:
आपके मिश्रित शब्द मेरी बुद्धि को भ्रमित कर रहे हैं। कृपया मुझे वह एक बात बताइए जिससे मैं कल्याण प्राप्त कर सकूँ।
व्याख्या:
अर्जुन श्रीकृष्ण से स्पष्ट और निश्चित उत्तर चाहते हैं। वह इस बात को समझना चाहते हैं कि उनके लिए सर्वोत्तम क्या है—ज्ञान का मार्ग या कर्म का पालन। यह अर्जुन की आत्मा को संतोष दिलाने का प्रयास है।
Explanation in Hindi:
अर्जुन यहाँ स्पष्टता की माँग कर रहे हैं। वह अपने कल्याण के लिए भगवान से एक सुनिश्चित मार्गदर्शन चाहते हैं ताकि वह अपने कर्तव्यों को सही तरीके से समझ सकें।
Explanation in English:
Here, Arjuna is asking for clarity. He seeks definite guidance from Krishna to understand the best path for his well-being, whether it is the path of knowledge or action.
श्लोक 3
श्रीभगवानुवाच:
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ |
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् || 3.3 ||
अर्थ:
भगवान बोले: हे निष्पाप अर्जुन, इस संसार में मैंने पहले दो मार्गों का वर्णन किया था—ज्ञानयोग, जो सांख्य योगियों के लिए है, और कर्मयोग, जो कर्मयोगियों के लिए है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण ने दो प्रकार के मार्गों की व्याख्या की। उन्होंने बताया कि ज्ञानयोग उन लोगों के लिए है जो आत्मज्ञान की साधना में रत हैं, और कर्मयोग उन लोगों के लिए है जो कर्तव्य और सेवा में विश्वास रखते हैं।
Explanation in Hindi:
श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि उन्होंने संसार में ज्ञानयोग और कर्मयोग के दो मार्ग प्रस्तुत किए हैं। ये मार्ग व्यक्ति की प्रवृत्ति और योग्यता के अनुसार हैं।
Explanation in English:
Krishna explains that He has established two paths in this world: the path of knowledge for those inclined toward introspection and the path of action for those committed to duty and service.
श्लोक 4
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते |
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति || 3.4 ||
अर्थ:
कर्म का आरंभ किए बिना कोई व्यक्ति निष्कर्मता (कर्म से मुक्ति) प्राप्त नहीं कर सकता, और केवल संन्यास से सिद्धि नहीं मिलती।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि केवल कर्म का त्याग करने से मोक्ष संभव नहीं है। मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए जीवन जीना चाहिए। निष्काम भाव से कर्म करना ही मोक्ष का मार्ग है।
Explanation in Hindi:
भगवान श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि कर्मों से बचने या उनका त्याग करने से व्यक्ति को सिद्धि नहीं मिलती। जीवन में कर्तव्यों का पालन आवश्यक है।
Explanation in English:
Lord Krishna emphasizes that liberation cannot be achieved by avoiding action or merely renouncing it. Fulfilling one’s duties with detachment is the true path to liberation.
श्लोक 5
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः || 3.5 ||
अर्थ:
कोई भी व्यक्ति क्षणभर भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता, क्योंकि प्रकृति के गुण सभी को कर्म करने के लिए विवश करते हैं।
व्याख्या:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्म मनुष्य के स्वभाव का हिस्सा है। प्रकृति के गुणों के कारण हर व्यक्ति को कर्म करना ही पड़ता है। इसलिए, निष्काम भाव से कर्म करना ही श्रेष्ठ है।
Explanation in Hindi:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि मनुष्य प्रकृति के नियमों के अनुसार कर्म करने के लिए बाध्य है। इसलिए, कर्तव्य का पालन करना अनिवार्य है।
Explanation in English:
Krishna explains that action is intrinsic to human nature. Everyone is compelled to act by the qualities of nature, and hence, performing duties selflessly is essential.
श्लोक 6
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते || 3.6 ||
अर्थ:
जो व्यक्ति अपने कर्मेंद्रियों को तो नियंत्रित करता है लेकिन मन से इंद्रिय विषयों का चिंतन करता है, वह मूढ़ आत्मा है और उसे कपटी कहा जाता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहां बताते हैं कि कर्मेंद्रियों को रोककर केवल बाहरी रूप से कर्म का त्याग करना पर्याप्त नहीं है। यदि मन में इंद्रियों के सुख का विचार है, तो ऐसा व्यक्ति धोखेबाज और मिथ्याचारी कहलाता है। वास्तविक कर्मयोग का अर्थ मन और कर्म दोनों का शुद्धिकरण है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक बताता है कि बाहरी दिखावे से कर्मों का त्याग करना सार्थक नहीं है। जब तक मन और विचार शुद्ध नहीं होंगे, तब तक सच्चा योग संभव नहीं है।
Explanation in English:
This verse highlights that outwardly renouncing actions while mentally dwelling on sensory pleasures is hypocritical. True karma yoga involves the purification of both mind and action.
श्लोक 7
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन |
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते || 3.7 ||
अर्थ:
हे अर्जुन, जो व्यक्ति मन से इंद्रियों को वश में करके कर्मेंद्रियों द्वारा बिना आसक्ति के कर्म करता है, वही श्रेष्ठ है।
व्याख्या:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने कर्मयोग का सटीक रूप बताया है। जो व्यक्ति अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करके निष्काम भाव से कर्तव्य करता है, वही सच्चा योगी है। इस प्रकार का व्यक्ति न केवल समाज के लिए लाभकारी होता है, बल्कि स्वयं के लिए भी आत्मज्ञान प्राप्त करता है।
Explanation in Hindi:
श्रीकृष्ण के अनुसार, असक्त भाव से इंद्रियों को वश में रखते हुए कर्म करना सच्चा योग है। ऐसा व्यक्ति वास्तविक जीवन में आत्मिक संतुलन प्राप्त करता है।
Explanation in English:
According to Krishna, performing duties with a detached mind and controlled senses constitutes true yoga. Such a person achieves spiritual balance in life.
श्लोक 8
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः || 3.8 ||
अर्थ:
अपने नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म अकर्म (निष्क्रियता) से श्रेष्ठ है। बिना कर्म के तो तुम्हारा शरीर भी नहीं चल सकता।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि मनुष्य को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। निष्क्रियता जीवन में अव्यवस्था लाती है, जबकि कर्म मनुष्य को न केवल जीवित रखता है बल्कि आत्मिक उन्नति का मार्ग भी प्रदान करता है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक कर्म के महत्व को दर्शाता है। बिना कर्म किए न तो जीवन चलता है और न ही आत्मा का विकास होता है।
Explanation in English:
This verse emphasizes the importance of action. Without action, neither life functions nor spiritual growth is possible.
श्लोक 9
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर || 3.9 ||
अर्थ:
हे कौन्तेय, यज्ञ के लिए किए गए कर्म को छोड़कर अन्य सभी कर्म बंधन उत्पन्न करते हैं। इसलिए, आसक्ति रहित होकर कर्तव्य का पालन करो।
व्याख्या:
यहां श्रीकृष्ण कर्म का यज्ञ से संबंध बताते हैं। यज्ञ का अर्थ है किसी स्वार्थ के बिना, लोकहित में किया गया कर्म। यदि कर्म स्वार्थ से प्रेरित होता है, तो वह बंधन का कारण बनता है। इसलिए, निष्काम भाव से कर्म करना आवश्यक है।
Explanation in Hindi:
श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि कर्म का उद्देश्य लोकहित होना चाहिए। जब व्यक्ति अपने कर्मों को यज्ञ की भावना से करता है, तो वह बंधन से मुक्त हो जाता है।
Explanation in English:
Krishna explains that actions should be selfless and for the greater good. When one performs duties with a sense of sacrifice, they are freed from bondage.
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श्लोक 10
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् || 3.10 ||
अर्थ:
सृष्टि के प्रारंभ में प्रजापति ने यज्ञ सहित प्रजाओं को उत्पन्न किया और कहा—इस यज्ञ से तुम繁त्त होओ, और यह तुम्हारी सभी इच्छाओं को पूर्ण करेगा।
व्याख्या:
यह श्लोक यज्ञ के महत्व को स्पष्ट करता है। प्रजापति (ब्रह्मा) ने सृष्टि की रचना करते समय यज्ञ को सभी मनुष्यों का कर्तव्य बताया। यह समाज और प्रकृति के संतुलन का आधार है।
Explanation in Hindi:
प्रजापति ने यज्ञ को जीवन का आधार बताया, क्योंकि यह मानव और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। यज्ञ का पालन करने से व्यक्ति की इच्छाएं पूर्ण होती हैं।
Explanation in English:
Prajapati established sacrifice (yajna) as the foundation of life, creating harmony between humans and nature. Performing sacrifices fulfills one’s desires.
Bhagwat Geeta Chapter 3 कर्मयोग – श्लोक 11 – 20
श्लोक 11
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः |
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ || 3.11 ||
अर्थ:
इस यज्ञ से देवताओं को प्रसन्न करो, और वे तुम्हें आशीर्वाद देंगे। इस प्रकार, परस्पर एक-दूसरे को प्रसन्न करके, तुम परम कल्याण को प्राप्त करोगे।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहां बताते हैं कि यज्ञ से न केवल मनुष्य लाभान्वित होता है, बल्कि देवता भी प्रसन्न होते हैं। यज्ञ के माध्यम से मनुष्य और प्रकृति के बीच सामंजस्य बना रहता है। यह परस्पर सहयोग से जीवन में सुख और शांति लाने का संदेश देता है।
Explanation in Hindi:
इस श्लोक में यज्ञ के माध्यम से परस्पर सहयोग की बात की गई है। देवताओं को यज्ञ द्वारा संतुष्ट करने से मनुष्य की इच्छाएं पूर्ण होती हैं और समाज में समृद्धि आती है।
Explanation in English:
This verse highlights mutual cooperation through sacrifice. By pleasing the gods through sacrifices, humans achieve their desires, leading to prosperity and harmony in society.
श्लोक 12
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः |
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः || 3.12 ||
अर्थ:
यज्ञ से संतुष्ट देवता तुम्हें वांछित भोग प्रदान करेंगे। लेकिन जो लोग इन दान का आदान-प्रदान नहीं करते, वे चोर के समान हैं।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह समझाते हैं कि मनुष्य को यज्ञ के माध्यम से प्राप्त भोगों का उपभोग समाज और देवताओं के कल्याण के लिए करना चाहिए। स्वार्थपूर्ण ढंग से उनका उपयोग करना अनुचित है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक समझाता है कि यज्ञ के माध्यम से प्राप्त वस्तुओं को देवताओं और समाज के साथ साझा करना चाहिए। केवल अपने लिए उनका उपयोग करना अधर्म है।
Explanation in English:
This verse explains that offerings obtained through sacrifice should be shared with gods and society. Using them selfishly is considered immoral.
श्लोक 13
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः |
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् || 3.13 ||
अर्थ:
यज्ञ के बचे हुए अन्न को खाने वाले पुण्यात्मा सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो लोग स्वार्थ के लिए भोजन पकाते हैं, वे पाप खाते हैं।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहां यज्ञ के शुद्धिकरण प्रभाव को बताते हैं। यज्ञ से प्राप्त भोजन शुद्ध होता है और इसे ग्रहण करने से मनुष्य पवित्र बनता है। लेकिन स्वार्थी व्यक्ति, जो केवल अपने लिए कार्य करता है, पाप का भागी बनता है।
Explanation in Hindi:
यज्ञ द्वारा प्राप्त भोजन को ग्रहण करना पवित्रता का प्रतीक है। इसे ग्रहण करने से आत्मा शुद्ध होती है। लेकिन स्वार्थी व्यक्ति अधर्म में फँसता है।
Explanation in English:
Eating food obtained through sacrifice symbolizes purity. It purifies the soul, while selfish individuals entangle themselves in sin.
श्लोक 14
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः || 3.14 ||
अर्थ:
सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न वर्षा से होता है, और वर्षा यज्ञ से उत्पन्न होती है। यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।
व्याख्या:
यह श्लोक प्राकृतिक चक्र का वर्णन करता है। यज्ञ के माध्यम से देवताओं को प्रसन्न करने से वर्षा होती है, जिससे अन्न उपजता है और प्राणी जीवित रहते हैं। यह कर्म के महत्व को दर्शाता है।
Explanation in Hindi:
श्रीकृष्ण प्राकृतिक संतुलन को यज्ञ से जोड़ते हैं। यज्ञ से वर्षा होती है, जो अन्न और प्राणियों के जीवन के लिए आवश्यक है।
Explanation in English:
Krishna connects natural balance with sacrifice. Sacrifices bring rain, which is essential for producing food and sustaining life.
श्लोक 15
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् |
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् || 3.15 ||
अर्थ:
कर्म ब्रह्मा से उत्पन्न होता है, और ब्रह्मा अक्षर (वेद) से उत्पन्न होते हैं। इसलिए सर्वव्यापक ब्रह्मा यज्ञ में सदैव स्थित रहता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह बताते हैं कि सृष्टि का मूल वेद है, जो ब्रह्मा द्वारा रचित है। यज्ञ ब्रह्मा का प्रतीक है, और समस्त कर्म यज्ञ से ही प्रेरित होते हैं।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक सृष्टि के मूल और वेदों की महिमा का वर्णन करता है। यज्ञ ब्रह्मा और वेदों के आधार पर आधारित है।
Explanation in English:
This verse describes the origin of creation and the glory of the Vedas. Sacrifice is rooted in Brahma and the Vedas.
श्लोक 16
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः |
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति || 3.16 ||
अर्थ:
हे पार्थ, जो इस स्थापित चक्र का पालन नहीं करता और केवल इंद्रियों के सुख में लगा रहता है, उसका जीवन व्यर्थ है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि जीवन का उद्देश्य इस चक्र का पालन करना है। जो लोग केवल भौतिक सुखों में लिप्त रहते हैं और इस चक्र का पालन नहीं करते, वे समाज और प्रकृति दोनों के प्रति कर्तव्यहीन होते हैं।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक कर्म के चक्र का महत्व बताता है। इसका पालन न करने वाला व्यक्ति अपने जीवन को व्यर्थ करता है।
Explanation in English:
This verse highlights the importance of following the cycle of duty. Those who do not adhere to it waste their lives.
श्लोक 17
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः |
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते || 3.17 ||
अर्थ:
जो मनुष्य आत्मा में ही आनंदित है, आत्मा से ही संतुष्ट है, और आत्मा में ही स्थित है, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।
व्याख्या:
यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार की अवस्था का वर्णन करता है। आत्मतृप्त व्यक्ति को बाहरी कर्मों की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि वह अपनी आत्मा में पूर्ण रूप से संतुष्ट रहता है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक उस व्यक्ति का वर्णन करता है जो आत्मा में स्थिर है और किसी बाहरी वस्तु या कर्म पर निर्भर नहीं करता।
Explanation in English:
This verse describes a self-realized person who is satisfied within themselves and is independent of external actions or objects.
श्लोक 18
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन |
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः || 3.18 ||
अर्थ:
ऐसे व्यक्ति का इस संसार में न तो किए हुए कर्म से कोई उद्देश्य है और न ही न किए हुए से। उसे किसी भी प्राणी पर निर्भर होने की आवश्यकता नहीं होती।
व्याख्या:
आत्मज्ञानी व्यक्ति किसी भी कर्म का फल नहीं चाहता और न ही वह किसी पर निर्भर करता है। उसका जीवन पूर्णतः स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होता है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता की स्थिति को दर्शाता है। आत्मज्ञानी व्यक्ति किसी बाहरी चीज़ से प्रभावित नहीं होता।
Explanation in English:
This verse illustrates the state of independence and self-reliance of a self-realized soul, unaffected by external circumstances.
श्लोक 19
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः || 3.19 ||
अर्थ:
इसलिए, आसक्ति को त्यागकर सदैव अपने कर्तव्यों का पालन करो। बिना आसक्ति से कर्म करते हुए मनुष्य परम लक्ष्य को प्राप्त करता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण कर्म योग का मार्ग दिखाते हैं, जिसमें कर्तव्यपालन महत्वपूर्ण है, लेकिन उसमें आसक्ति नहीं होनी चाहिए। इससे आत्मा शुद्ध होती है और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक कर्म योग का सार है। कर्तव्यों को निष्काम भाव से करते हुए जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
Explanation in English:
This verse encapsulates the essence of Karma Yoga. Performing duties selflessly leads to the attainment of life’s ultimate goal.
श्लोक 20
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः |
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि || 3.20 ||
अर्थ:
जनकादि जैसे महापुरुषों ने कर्म द्वारा ही सिद्धि प्राप्त की। लोकसंग्रह को ध्यान में रखते हुए तुम्हें भी कर्म करना चाहिए।
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि समाज के लिए आदर्श स्थापित करने हेतु कर्म करना आवश्यक है। महापुरुषों ने भी समाज के कल्याण के लिए अपने कर्तव्यों का पालन किया।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक समाज कल्याण और नेतृत्व के महत्व को रेखांकित करता है। व्यक्ति को लोकहित में कर्म करते रहना चाहिए।
Explanation in English:
This verse emphasizes the importance of social welfare and leadership. One should perform actions for the betterment of society.
Bhagwat Geeta Chapter 3 कर्मयोग – श्लोक 21 – 30
श्लोक 21
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते || 3.21 ||
अर्थ:
श्रेष्ठ व्यक्ति जो भी करता है, अन्य लोग उसी का अनुसरण करते हैं। वह जैसा उदाहरण प्रस्तुत करता है, समाज वैसा ही अनुसरण करता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि महान व्यक्तियों के कार्य समाज पर गहरा प्रभाव डालते हैं। इसलिए, उन्हें सदैव श्रेष्ठ कर्म करना चाहिए।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक नेतृत्व और अनुकरण का महत्व बताता है। श्रेष्ठ व्यक्तियों को अपने कार्यों के प्रति सजग रहना चाहिए।
Explanation in English:
This verse highlights the importance of leadership and imitation. Great individuals must be mindful of their actions, as society follows their example.
श्लोक 22
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि || 3.22 ||
अर्थ:
हे पार्थ, मुझे तीनों लोकों में कोई भी कार्य करने की आवश्यकता नहीं है, और न ही मुझे कुछ प्राप्त करना है या प्राप्त करने की इच्छा है। फिर भी, मैं कर्म करता हूं।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहां बताते हैं कि वह पूर्ण और आत्मनिर्भर हैं। फिर भी, वह कर्म करते हैं ताकि अन्य लोग भी उनके कर्मों का अनुसरण करें। यह उनके निस्वार्थ कर्म योग का उदाहरण है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक भगवान के निस्वार्थ कर्म योग का परिचायक है। वह केवल लोकहित के लिए कर्म करते हैं, न कि अपनी किसी आवश्यकता के लिए।
Explanation in English:
This verse showcases Lord Krishna’s selfless Karma Yoga. He acts solely for the welfare of the world, not for any personal need or gain.
श्लोक 23
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || 3.23 ||
अर्थ:
यदि मैं सतर्क होकर कर्म न करूं, तो हे पार्थ, सभी मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करेंगे।
व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि यदि वह कर्म न करें, तो लोग भी कर्म करना छोड़ देंगे। इसलिए, उनका कर्म करना आवश्यक है ताकि समाज में कर्म का महत्व बना रहे।
Explanation in Hindi:
श्रीकृष्ण समाज को कर्मशील बनाए रखने के लिए स्वयं कर्म करते हैं, जिससे लोग उनके उदाहरण का अनुसरण करें।
Explanation in English:
Krishna acts to inspire society to remain active, ensuring people follow his example and value actions.
श्लोक 24
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् |
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः || 3.24 ||
अर्थ:
यदि मैं कर्म न करूं, तो ये संसार नष्ट हो जाएंगे। मैं समाज में अव्यवस्था का कारण बन जाऊंगा और इन प्राणियों का विनाश कर दूंगा।
व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण कर्म के महत्व को समझाते हैं। यदि वह कर्म करना बंद कर दें, तो समाज और प्रकृति में असंतुलन उत्पन्न होगा। यह संदेश है कि हर व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक कर्म के महत्व को दर्शाता है। समाज और सृष्टि के संतुलन के लिए सभी को अपने कर्म करते रहना चाहिए।
Explanation in English:
This verse highlights the importance of action for maintaining balance in society and creation. Everyone must fulfill their duties diligently.
श्लोक 25
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् || 3.25 ||
अर्थ:
हे भारत, जैसे अज्ञानी लोग आसक्त होकर कर्म करते हैं, वैसे ही ज्ञानी को भी आसक्ति रहित होकर समाज की भलाई के लिए कर्म करना चाहिए।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति को भी कर्म करते रहना चाहिए, लेकिन बिना किसी स्वार्थ या आसक्ति के। उनका उद्देश्य लोक कल्याण होना चाहिए।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक ज्ञानी व्यक्तियों के लिए कर्म योग का मार्ग दिखाता है। उन्हें समाज कल्याण के लिए निःस्वार्थ कर्म करना चाहिए।
Explanation in English:
This verse guides wise individuals to engage in selfless actions for the welfare of society, free from attachment or personal desire.
श्लोक 26
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् |
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् || 3.26 ||
अर्थ:
ज्ञानी व्यक्ति को अज्ञानी कर्मासक्त लोगों की बुद्धि को भ्रमित नहीं करना चाहिए। उसे स्वयं समर्पित भाव से कर्म करते हुए उन्हें प्रेरित करना चाहिए।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहां समझाते हैं कि ज्ञानी व्यक्ति को अपने कर्मों से प्रेरणा देकर अज्ञानी लोगों को सही मार्ग पर लाना चाहिए, न कि उन्हें आलोचना से हतोत्साहित करना चाहिए।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक प्रेरणा देने वाले नेतृत्व का महत्व बताता है। ज्ञानी को अपने कर्मों से दूसरों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
Explanation in English:
This verse emphasizes the importance of inspirational leadership. A wise person should motivate others through their actions rather than discourage them.
श्लोक 27
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः |
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || 3.27 ||
अर्थ:
प्रकृति के गुणों द्वारा सभी कर्म किए जाते हैं, लेकिन अहंकार से भ्रमित आत्मा सोचती है कि वह कर्ता है।
व्याख्या:
यह श्लोक समझाता है कि हमारे सभी कर्म प्रकृति के त्रिगुण (सत्व, रजस, तमस) के प्रभाव से होते हैं। लेकिन अज्ञानी व्यक्ति यह मान लेता है कि वह स्वयं कर्ता है, जो उसके अहंकार का परिणाम है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक अहंकार के प्रभाव को दर्शाता है, जो व्यक्ति को यह सोचने पर मजबूर करता है कि वह स्वयं सभी कर्मों का कर्ता है। वास्तव में, कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा संपन्न होते हैं।
Explanation in English:
This verse highlights the illusion of ego, which makes one believe they are the doer of actions. In reality, actions are performed by the qualities of nature (the three Gunas).
श्लोक 28
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः |
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते || 3.28 ||
अर्थ:
हे महाबाहो, जो तत्वज्ञानी है, वह जानता है कि गुण ही गुणों में कार्य करते हैं और इसलिए वह आसक्त नहीं होता।
व्याख्या:
तत्वज्ञानी व्यक्ति समझता है कि सारा खेल प्रकृति के गुणों का है। वह यह जानकर निष्काम और निष्क्रिय भाव से कर्म करता है, क्योंकि वह इनसे ऊपर उठ चुका होता है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक ज्ञानी की स्थिति को दर्शाता है, जो प्रकृति के गुणों और कर्मों के विभाजन को समझते हुए आसक्त नहीं होता।
Explanation in English:
This verse describes the state of the wise, who understand the interplay of nature’s qualities and actions, remaining detached from them.
श्लोक 29
प्रकृतेर्गुणसम्मूढाः सज्जन्ते गुणकर्मसु |
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् || 3.29 ||
अर्थ:
प्रकृति के गुणों से मोहित लोग गुण और कर्मों में आसक्त हो जाते हैं। तत्वज्ञान से रहित उन मंदबुद्धियों को तत्वज्ञानी विचलित न करें।
व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि ज्ञानी व्यक्ति को अज्ञानी लोगों की कमजोरी को समझते हुए उन्हें धीरे-धीरे प्रेरित करना चाहिए। उन्हें आलोचना या तिरस्कार से हतोत्साहित नहीं करना चाहिए।
Explanation in Hindi:
ज्ञानी को सहनशील और संवेदनशील होना चाहिए, ताकि अज्ञानी को सही मार्ग पर लाया जा सके।
Explanation in English:
The wise should be patient and compassionate, gradually guiding the ignorant toward the right path without discouraging them.
श्लोक 30
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा |
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः || 3.30 ||
अर्थ:
अपने सभी कर्म मुझे समर्पित करके, आत्मचेतना में स्थित होकर, आसक्ति और अहंकार त्यागकर, भयमुक्त होकर युद्ध करो।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वह अपने सारे कर्म भगवान को अर्पित कर दे और अपने कर्तव्य का पालन करे। यह श्लोक कर्म योग का सार है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक भगवान में समर्पण और अपने कर्तव्यों को निःस्वार्थ भाव से निभाने का संदेश देता है।
Explanation in English:
This verse conveys the message of surrendering to God and performing one’s duties selflessly and fearlessly.
Bhagwat Geeta Chapter 3 कर्मयोग – श्लोक 31 – 40
श्लोक 31
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः |
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः || 3.31 ||
अर्थ:
जो मनुष्य मेरे इस शाश्वत मत का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं और ईर्ष्या नहीं करते, वे भी कर्मबंधन से मुक्त हो जाते हैं।
व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो उनके दिखाए मार्ग का श्रद्धा और विश्वास के साथ अनुसरण करते हैं, वे संसार के बंधनों से मुक्त हो जाते हैं।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक भगवान के उपदेशों पर विश्वास और श्रद्धा रखने के महत्व को दर्शाता है।
Explanation in English:
This verse highlights the importance of faith and devotion in following the teachings of the Lord, leading to liberation from worldly bondage.
श्लोक 32
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः || 3.32 ||
अर्थ:
जो लोग मेरे इस मत में दोष निकालते हैं और इसका पालन नहीं करते, उन्हें अज्ञानी और चेतनाहीन समझो। वे विनाश को प्राप्त होते हैं।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो उनके उपदेशों का पालन नहीं करते और इसमें दोष देखते हैं, वे अपनी अज्ञानता के कारण सही मार्ग से भटक जाते हैं और जीवन का सही अर्थ नहीं समझ पाते।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक उन लोगों को चेतावनी देता है जो भगवान के उपदेशों का पालन नहीं करते और उसमें दोष ढूंढते हैं।
Explanation in English:
This verse warns those who reject the teachings of the Lord and find faults in them, indicating they are deluded and doomed to fail.
श्लोक 33
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति || 3.33 ||
अर्थ:
ज्ञानी व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है। सभी प्राणी अपनी-अपनी प्रकृति का अनुसरण करते हैं, इसलिए किसी को जबरदस्ती रोकने से कुछ नहीं होता।
व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति (स्वभाव) उसके कर्मों को प्रभावित करती है। यहां तक कि ज्ञानी भी अपनी प्रकृति का पालन करता है। इसलिए, सुधार का तरीका ज्ञान और प्रेरणा से होना चाहिए, न कि बलपूर्वक।
Explanation in Hindi:
प्रकृति के प्रभाव को समझकर, सुधार का प्रयास जबरदस्ती न करके प्रेरणा और ज्ञान से करना चाहिए।
Explanation in English:
Understanding the influence of nature, efforts for improvement should be through inspiration and knowledge, not by force.
श्लोक 34
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ || 3.34 ||
अर्थ:
प्रत्येक इंद्रिय के विषय में आकर्षण (राग) और घृणा (द्वेष) होते हैं। इन दोनों के वश में नहीं आना चाहिए, क्योंकि ये आत्मा के शत्रु हैं।
व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण चेतावनी देते हैं कि राग और द्वेष, जो इंद्रियों के माध्यम से उत्पन्न होते हैं, आत्मा के लिए बाधक हैं। इनसे बचने का मार्ग संतुलन और विवेक में है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक इंद्रियों पर नियंत्रण और राग-द्वेष से बचने का मार्ग बताता है, जो आत्मा के विकास में बाधा डालते हैं।
Explanation in English:
This verse emphasizes controlling the senses and avoiding attachment and aversion, which hinder spiritual growth.
श्लोक 35
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः || 3.35 ||
अर्थ:
अपना धर्म, चाहे वह दोषपूर्ण ही क्यों न हो, दूसरे के धर्म को पूरी तरह से निभाने से बेहतर है। अपने धर्म में मरना भी श्रेष्ठ है, क्योंकि दूसरे का धर्म भयावह होता है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को यह शिक्षा देते हैं कि हर व्यक्ति को अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। दूसरे के कर्तव्य को अपनाना विनाशकारी हो सकता है। आत्मा का विकास अपने धर्म के पालन में ही निहित है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक अपने धर्म (कर्तव्य) के पालन के महत्व को दर्शाता है, भले ही वह अपूर्ण क्यों न हो।
Explanation in English:
This verse underscores the importance of adhering to one’s own duty, even if imperfect, as it leads to spiritual growth, unlike adopting another’s duty, which can be perilous. Bhagwat Geeta
श्लोक 36
अर्जुन उवाच |
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || 3.36 ||
अर्थ:
अर्जुन ने कहा: हे वार्ष्णेय (कृष्ण), यह मनुष्य अनिच्छा के बावजूद पाप क्यों करता है, जैसे कि किसी बलपूर्वक प्रेरित करने वाले के द्वारा मजबूर किया गया हो?
व्याख्या:
अर्जुन यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं कि लोग अपनी इच्छा के विरुद्ध भी पाप क्यों करते हैं। यह प्रश्न मानव स्वभाव और पाप की प्रवृत्ति को समझने के लिए है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक मनुष्य की आंतरिक कमजोरियों और उसके पाप करने की प्रवृत्ति के कारणों को जानने की जिज्ञासा व्यक्त करता है।
Explanation in English:
This verse expresses curiosity about the reasons behind human weaknesses and the tendency to commit sins even against one’s will.
श्लोक 37
श्रीभगवानुवाच |
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् || 3.37 ||
अर्थ:
श्रीभगवान ने कहा: यह कामना और क्रोध है, जो रजोगुण से उत्पन्न होते हैं। यह बहुत भोगवादी और महापापी है, इसे इस संसार में अपना सबसे बड़ा शत्रु समझो।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि काम (इच्छा) और क्रोध (गुस्सा) रजोगुण का परिणाम हैं और ये आत्मा के सबसे बड़े शत्रु हैं। ये व्यक्ति को पाप और विनाश की ओर ले जाते हैं।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक बताता है कि कामना और क्रोध व्यक्ति को उसकी उच्च अवस्था से गिराकर अज्ञान और पाप में डाल देते हैं।
Explanation in English:
This verse explains that desire and anger arise from passion (Rajas) and act as the greatest enemies, leading to ignorance and sin.
श्लोक 38
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च |
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् || 3.38 ||
अर्थ:
जैसे आग को धुएं से, दर्पण को धूल से, और भ्रूण को गर्भ से ढक दिया जाता है, वैसे ही यह ज्ञान भी कामना से ढका हुआ है।
व्याख्या:
यह श्लोक प्रतीकात्मक रूप से दिखाता है कि कैसे कामना हमारे ज्ञान को ढक लेती है, जैसे धुआं आग को छुपा देता है। ज्ञान को उजागर करने के लिए कामना को दूर करना आवश्यक है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक ज्ञान और आत्मा के बीच कामना को बाधा के रूप में प्रस्तुत करता है, जिसे आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए हटाना आवश्यक है।
Explanation in English:
This verse symbolizes how desire veils knowledge, much like smoke covers fire, and emphasizes removing desire to attain self-realization.
श्लोक 39
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च || 3.39 ||
अर्थ:
हे कौन्तेय (अर्जुन), यह ज्ञान नित्य शत्रु कामना के द्वारा ढका हुआ है, जो दुष्पूर (कभी संतुष्ट न होने वाली) और अग्नि के समान जलाने वाली है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि कामना का स्वभाव हमेशा असंतोषपूर्ण और विनाशकारी होता है। यह आत्मा के ज्ञान को ढककर उसे अज्ञानता में ले जाती है।
Explanation in Hindi:
कामना आत्मा का शत्रु है, जो न केवल ज्ञान को ढकती है बल्कि व्यक्ति को अज्ञान और भटकाव की ओर ले जाती है।
Explanation in English:
Desire is the eternal enemy of the soul, veiling knowledge and leading one toward ignorance and confusion.
श्लोक 40
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते |
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् || 3.40 ||
अर्थ:
इंद्रियां, मन और बुद्धि इस कामना के ठिकाने हैं। इनके माध्यम से यह कामना ज्ञान को ढककर जीवात्मा को भ्रमित करती है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण कहते हैं कि कामना इंद्रियों, मन और बुद्धि को अपने नियंत्रण में लेकर व्यक्ति के ज्ञान को अज्ञान में परिवर्तित कर देती है।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक कामना के कार्यक्षेत्र को दर्शाता है और बताता है कि यह कैसे इंद्रियों, मन और बुद्धि पर प्रभाव डालकर आत्मा को भ्रमित करती है।
Explanation in English:
This verse describes the domains of desire—senses, mind, and intellect—and how it clouds knowledge, leading to delusion. Bhagwat Geeta
Bhagwat Geeta Chapter 3 कर्मयोग – श्लोक 41 – 43
श्लोक 41
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् || 3.41 ||
अर्थ:
इसलिए, हे भरतवंशी (अर्जुन), सबसे पहले इंद्रियों को नियंत्रित करके इस पापस्वरूप कामना को नष्ट कर दो, जो ज्ञान और विज्ञान को नष्ट करती है।
व्याख्या:
यह श्लोक इंद्रियों को नियंत्रण में रखने के महत्व को दर्शाता है, जिससे कामना का प्रभाव कम होता है और आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त होता है।
Explanation in Hindi:
श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि इंद्रियों पर विजय प्राप्त करना ही कामना को समाप्त करने का पहला कदम है।
Explanation in English:
Lord Krishna advises Arjuna that controlling the senses is the first step toward overcoming desire and achieving self-realization.
श्लोक 42
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः || 3.42 ||
अर्थ:
इंद्रियां शरीर से श्रेष्ठ हैं, मन इंद्रियों से श्रेष्ठ है, बुद्धि मन से श्रेष्ठ है, और जो आत्मा है, वह बुद्धि से भी श्रेष्ठ है।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि हमारी आत्मा (सच्चा स्वरूप) सभी भौतिक और मानसिक तत्वों से परे है। आत्मा की ओर बढ़ने के लिए इंद्रियों, मन और बुद्धि पर विजय प्राप्त करनी होगी।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक आत्मा की सर्वोच्चता को दर्शाता है और आत्मा तक पहुंचने के लिए इंद्रियों, मन और बुद्धि के नियंत्रण का महत्व समझाता है।
Explanation in English:
This verse highlights the supreme nature of the soul and emphasizes the importance of controlling the senses, mind, and intellect to realize the self. Bhagwat Geeta
श्लोक 43
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् || 3.43 ||
अर्थ:
इस प्रकार बुद्धि से भी श्रेष्ठ आत्मा को जानकर, अपने मन को संयमित करो और इस दुर्जेय कामना रूपी शत्रु का नाश करो।
व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्म-साक्षात्कार का मार्ग दिखा रहे हैं। वे कहते हैं कि आत्मा को पहचानने के लिए मन और बुद्धि को संयमित करना जरूरी है, ताकि कामना रूपी शत्रु को समाप्त किया जा सके।
Explanation in Hindi:
यह श्लोक आत्म-साक्षात्कार का महत्व और कामना को नष्ट करने के लिए आत्मा पर ध्यान केंद्रित करने की प्रक्रिया को समझाता है।
Explanation in English:
This verse explains the importance of self-realization and focusing on the soul to destroy the formidable enemy of desire. Bhagwat Geeta
निष्कर्ष:
अध्याय 3, जिसे कर्म योग के नाम से जाना जाता है, जीवन के कर्तव्यों और उनके निर्वाह की सही विधि पर केंद्रित है। श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि कर्म करना जीवन का अभिन्न हिस्सा है, लेकिन कर्म का फल भगवान को समर्पित करना चाहिए। यह अध्याय कर्म, ज्ञान, और भक्ति के बीच संतुलन के महत्व को उजागर करता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs):
कर्म योग का मुख्य संदेश क्या है?
कर्म योग का मुख्य संदेश यह है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए उनके फल की आसक्ति से बचना चाहिए और उसे भगवान को अर्पित करना चाहिए।
“काम और क्रोध” को क्यों शत्रु बताया गया है?
काम और क्रोध रजोगुण से उत्पन्न होते हैं और आत्मा के ज्ञान को ढक देते हैं। ये व्यक्ति को पाप और अज्ञान की ओर ले जाते हैं, इसलिए इन्हें शत्रु माना गया है।
इंद्रियों को नियंत्रित करना क्यों आवश्यक है?
इंद्रियों को नियंत्रित करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि ये मन और बुद्धि को प्रभावित करती हैं। इन्हें संयमित करके आत्मा के सच्चे स्वरूप तक पहुंचा जा सकता है।
कर्म योग में “स्वधर्म” का क्या महत्व है?
स्वधर्म का पालन करना अन्य धर्मों का अनुकरण करने से बेहतर है, क्योंकि यह आत्मा के विकास और समाज में संतुलन बनाए रखने में सहायक होता है।
अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर कैसे दिया गया?
अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्रीकृष्ण ने कर्म योग का महत्व समझाया और बताया कि आत्मा, मन, बुद्धि और इंद्रियों के बीच क्या संबंध है, और इन पर विजय प्राप्त करके मोक्ष कैसे पाया जा सकता है।