Bhagwat Geeta Chapter 4: ज्ञान कर्म संन्यास Explain In Hindi

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Bhagwat Geeta

नमस्ते, प्रिय पाठकों

आपका स्वागत है भगवद गीता के चौथे अध्याय में, जिसे “ज्ञान कर्म संन्यास योग” के नाम से जाना जाता है। इस अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को गूढ़ आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं और यह समझाते हैं कि किस प्रकार ज्ञान और कर्म का संयोग जीवन को सार्थक बनाता है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि वे स्वयं समय-समय पर धरती पर अवतरित होते हैं, जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है। इसके साथ ही, वे अर्जुन को सच्चे ज्ञान के महत्व और कर्म को समर्पण के भाव से करने का उपदेश देते हैं। यह अध्याय हमें यह भी सिखाता है कि कैसे कर्म करते हुए भी अज्ञान के बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है।

आइए, इस अध्याय के माध्यम से हम ज्ञान, कर्म और ईश्वर की लीला के रहस्यों को समझने का प्रयास करें।

धन्यवाद

Bhagwat Geeta | भगवत गीता अध्याय 4 के श्लोक 1-10 हिंदी में

Bhagwat Geeta

श्लोक 1

अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य (विवस्वान) को बताया। सूर्य ने इसे मनु को और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को बताया।

व्याख्या:
इस श्लोक में श्रीकृष्ण ज्ञान की प्राचीन परंपरा का वर्णन करते हैं। यह योग (ज्ञान) समय के साथ ऋषियों और राजाओं के माध्यम से प्रसारित हुआ। श्रीकृष्ण यह बताना चाहते हैं कि यह ज्ञान सनातन और सार्वभौमिक है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक ज्ञान और योग की प्राचीन परंपरा को दर्शाता है। यह बताता है कि यह ज्ञान समय के साथ ऋषियों और राजाओं द्वारा संरक्षित और प्रसारित किया गया।

श्लोक 2

अर्थ:
इस प्रकार परंपरा के द्वारा यह योग राजर्षियों (ज्ञानी राजाओं) द्वारा समझा गया। लेकिन समय के साथ यह योग नष्ट हो गया।

व्याख्या:
श्रीकृष्ण बताते हैं कि यह योग केवल उन राजर्षियों द्वारा समझा और अपनाया गया, जो ज्ञानी और धर्मपरायण थे। लेकिन कालचक्र की वजह से यह ज्ञान धीरे-धीरे खो गया।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक बताता है कि समय के प्रभाव से प्राचीन ज्ञान नष्ट हो सकता है, यदि इसे सही ढंग से संरक्षित न किया जाए।

श्लोक 3

अर्थ:
आज मैंने वही प्राचीन योग तुम्हें बताया है, क्योंकि तुम मेरे भक्त और मित्र हो। यह ज्ञान सबसे बड़ा रहस्य है।

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि यह ज्ञान उन्हें विशेष रूप से इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि वे उनके मित्र और भक्त हैं। यह ज्ञान गुप्त और अत्यंत मूल्यवान है।

Explanation in Hindi:
श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को ज्ञान प्रदान करने के अपने उद्देश्य को स्पष्ट करते हैं, यह बताते हुए कि यह केवल भक्तों और सच्चे साथियों के लिए है।

श्लोक 4

अर्थ:
अर्जुन ने कहा: आपका जन्म तो अभी हुआ है, और विवस्वान का जन्म बहुत पहले हुआ था। फिर आप यह कैसे कह सकते हैं कि आपने यह योग सबसे पहले बताया?

व्याख्या:
अर्जुन श्रीकृष्ण के कथन से हैरान हैं। वे जानना चाहते हैं कि श्रीकृष्ण, जो उनके समकालीन हैं, प्राचीन विवस्वान को यह ज्ञान कैसे दे सकते हैं। यह उनके दिव्य स्वरूप को समझने की शुरुआत है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक अर्जुन की जिज्ञासा को दर्शाता है, जो उनके मानव दृष्टिकोण को दर्शाता है। वे श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप को पूरी तरह समझ नहीं पाते।

श्लोक 5

अर्थ:
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा: हे अर्जुन, मेरे और तुम्हारे कई जन्म हो चुके हैं। मैं उन सभी को जानता हूं, लेकिन तुम उन्हें नहीं जानते।

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अपने दिव्य स्वरूप का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि वे हर जन्म को याद रखते हैं क्योंकि वे सर्वज्ञ हैं, जबकि अर्जुन अपने पूर्व जन्मों को भूल गए हैं।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक भगवान के सर्वज्ञ और दिव्य स्वरूप को दर्शाता है। यह बताता है कि मानव आत्मा सीमित है, जबकि भगवान असीमित हैं।

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श्लोक 6

अर्थ:
हालाँकि मैं अजन्मा और अविनाशी हूँ, और सभी प्राणियों का स्वामी हूँ, फिर भी मैं अपनी प्रकृति को अधीन करते हुए अपनी माया से प्रकट होता हूँ।

व्याख्या:
श्रीकृष्ण यहां अपने दिव्य अवतार का रहस्य समझाते हैं। वे बताते हैं कि वे अजन्मा और अविनाशी होते हुए भी अपनी माया (दिव्य शक्ति) के माध्यम से संसार में प्रकट होते हैं। यह संसार में धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए होता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक भगवान के अवतार लेने के पीछे का कारण और उनकी दिव्यता को स्पष्ट करता है। वे जन्म और मृत्यु से परे हैं, लेकिन संसार को धर्म के पथ पर लाने के लिए अवतरित होते हैं।

श्लोक 7

अर्थ:
हे भारत (अर्जुन), जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं अपने स्वरूप को रचता हूँ।

व्याख्या:
यह श्लोक भगवान के अवतार लेने के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। जब संसार में धर्म का पतन और अधर्म का प्रसार होता है, तब भगवान संसार में अवतरित होकर धर्म की पुनर्स्थापना करते हैं।

Explanation in Hindi:
भगवान इस श्लोक में बताते हैं कि वे धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिए अवतरित होते हैं। यह श्लोक अवतारवाद का सिद्धांत प्रस्तुत करता है।

श्लोक 8

अर्थ:
साधुजनों की रक्षा, दुष्टों के विनाश, और धर्म की स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में अवतरित होता हूँ।

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण अपने अवतार लेने के तीन मुख्य उद्देश्यों को बताते हैं: साधुजनों की रक्षा करना, दुष्टों का नाश करना, और धर्म की पुनर्स्थापना करना।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक भगवान के अवतार के तीन उद्देश्यों को दर्शाता है। यह बताता है कि भगवान युग-युग में धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए अवतरित होते हैं।

श्लोक 9

अर्थ:
जो मेरे दिव्य जन्म और कर्म को तत्त्व से जानता है, वह शरीर त्यागने के बाद पुनर्जन्म नहीं लेता और मेरे पास आता है।

व्याख्या:
भगवान यह समझाते हैं कि जो व्यक्ति उनकी लीलाओं और कर्मों को उनके वास्तविक दिव्य स्वरूप में समझता है, वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाता है और परमात्मा में लीन हो जाता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक भगवान के दिव्य स्वरूप और पुनर्जन्म से मुक्ति का रहस्य प्रकट करता है। इसे समझने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

श्लोक 10

अर्थ:
जो लोग राग, भय, और क्रोध से मुक्त होकर मुझमें लीन हो जाते हैं और ज्ञान तथा तपस्या के द्वारा शुद्ध हो जाते हैं, वे मेरे स्वरूप को प्राप्त करते हैं।

व्याख्या:
भगवान बताते हैं कि जो व्यक्ति अपने भीतर से सभी सांसारिक इच्छाओं, भय, और क्रोध को समाप्त कर देता है और भगवान में अपने को समर्पित कर देता है, वह उनके साथ एकत्व को प्राप्त करता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक आत्मशुद्धि और भक्ति के महत्व को उजागर करता है। भगवान में समर्पण से मोक्ष संभव है।

Bhagwat Geeta | भगवत गीता अध्याय 4 के श्लोक 11-20 हिंदी में

श्लोक 11

अर्थ:
हे पार्थ (अर्जुन), जो जैसा मुझमें समर्पण करता है, मैं भी उसे वैसे ही प्राप्त करता हूँ। मनुष्य हर प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में बताते हैं कि वे प्रत्येक भक्त को उसकी भक्ति और श्रद्धा के अनुरूप फल प्रदान करते हैं। संसार के सभी मार्ग अंततः उन्हीं की ओर ले जाते हैं।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक यह दर्शाता है कि भगवान सभी के लिए समान रूप से उपस्थित हैं और उनकी कृपा सभी पर निर्भर करती है कि वे किस प्रकार भक्ति करते हैं।

श्लोक 12

अर्थ:
जो लोग कर्मों की सिद्धि की इच्छा रखते हैं, वे देवताओं की पूजा करते हैं। मानव लोक में कर्मों से प्राप्त सिद्धि शीघ्र ही फलित होती है।

व्याख्या:
यह श्लोक उन लोगों की प्रवृत्ति को दर्शाता है जो सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए देवताओं की पूजा करते हैं। हालांकि, यह सिद्धियां अस्थायी होती हैं।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक यह समझाता है कि सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए किए गए कर्म तात्कालिक फल देते हैं, लेकिन वे स्थायी नहीं होते।

श्लोक 13

अर्थ:
गुण और कर्मों के आधार पर चार वर्णों की व्यवस्था मैंने बनाई है। यद्यपि मैं इसका रचयिता हूँ, फिर भी मैं अकर्त्ता और अविनाशी हूँ।

व्याख्या:
भगवान चार वर्णों की व्यवस्था की व्याख्या करते हैं, जो व्यक्तियों के गुणों और कर्मों के अनुसार होती है। यह वर्णव्यवस्था सामाजिक संतुलन के लिए बनाई गई थी, लेकिन भगवान स्वयं इनसे परे हैं।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक यह बताता है कि भगवान ने सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया, लेकिन वे स्वयं इससे अछूते और निर्लिप्त हैं।

श्लोक 14

अर्थ:
मुझे कर्म न बंधन में बांधते हैं और न ही मुझे उनके फल की इच्छा होती है। जो यह सत्य जानता है, वह कर्मों से बंधनमुक्त हो जाता है।

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण यहां कर्म के गूढ़ रहस्य को बताते हैं। वे कहते हैं कि उनके लिए कर्म केवल लीला है और वे इसके फल की इच्छा से परे हैं। जो इस सत्य को समझता है, वह भी कर्मबंधन से मुक्त हो सकता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक बताता है कि निष्काम कर्म का सिद्धांत भगवान की लीला का हिस्सा है, और इसे समझने से आत्मा कर्मबंधन से मुक्त हो सकती है।

श्लोक 15

अर्थ:
इस ज्ञान को जानकर मुमुक्षु (मुक्ति चाहने वाले) पूर्वजों ने भी कर्म किए थे। इसलिए तुम भी उन्हीं की भांति कर्म करो।

व्याख्या:
भगवान अर्जुन को प्रेरित करते हैं कि वे निष्काम भाव से कर्म करें, जैसा कि प्राचीन मनीषियों और मुमुक्षुओं ने किया। यह मार्ग मुक्ति का है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक निष्काम कर्म की परंपरा को दर्शाता है और अर्जुन को भी इसी मार्ग का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करता है।

श्लोक 16

अर्थ:
कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इस विषय में विद्वान भी भ्रमित होते हैं। मैं तुम्हें वह कर्म समझाऊँगा, जिसे जानकर तुम अशुभ (बंधन) से मुक्त हो जाओगे।

व्याख्या:
कर्म, अकर्म और विकर्म का ज्ञान अत्यंत गूढ़ है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को इस ज्ञान को प्राप्त करने का आश्वासन देते हैं ताकि वह कर्मों के बंधन से मुक्त हो सके।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक कर्म के गूढ़ रहस्य को उजागर करने की ओर संकेत करता है। इसे जानने से मनुष्य अशुभ बंधनों से मुक्त हो सकता है।

श्लोक 17

अर्थ:
कर्म, विकर्म, और अकर्म—इनका ज्ञान होना आवश्यक है। कर्म का मार्ग बड़ा गूढ़ और जटिल है।

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि कर्म के प्रभावों को समझना आसान नहीं है। निष्काम कर्म, निष्क्रियता, और गलत कर्म को समझना आवश्यक है ताकि व्यक्ति सही मार्ग पर चल सके।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक कर्म, अकर्म, और विकर्म के भेद को समझने की आवश्यकता पर जोर देता है। यह ज्ञान मुक्ति का मार्ग है।

श्लोक 18

अर्थ:
जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है, वही मनुष्यों में बुद्धिमान है। वह योगयुक्त है और पूर्ण रूप से कर्म करता है।

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि सच्चा ज्ञानी वही है जो कर्म के भीतर अकर्म को और अकर्म के भीतर कर्म को पहचान सकता है। यह समता का भाव ही सच्चे योग का प्रतीक है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक बताता है कि सच्चा योगी वही है जो अपने कर्मों में ईश्वर को देखता है और समर्पण भाव से कर्म करता है।

श्लोक 19

अर्थ:
जिसके सभी कर्म इच्छाओं और कामनाओं से रहित हैं और जिसका कर्म ज्ञान की अग्नि से भस्म हो चुका है, बुद्धिमान उसे ज्ञानी कहते हैं।

व्याख्या:
भगवान यहाँ निष्काम कर्म की महत्ता बताते हैं। वह व्यक्ति जो ज्ञान की शक्ति से अपने सभी कर्मों के फल की इच्छाओं को त्याग देता है, सच्चा ज्ञानी और मुक्त है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक ज्ञान और निष्काम कर्म की महिमा को प्रकट करता है। यह दिखाता है कि ईश्वर में स्थित होकर कर्म करने से मुक्ति प्राप्त होती है।

श्लोक 20

अर्थ:
जो व्यक्ति कर्मफल के प्रति आसक्ति छोड़ देता है, जो सदा संतुष्ट और निर्भरता से रहित है, वह कर्म में लगा हुआ भी वास्तव में कुछ नहीं करता।

व्याख्या:
यह श्लोक निष्काम कर्म के उच्चतम स्तर को दर्शाता है। व्यक्ति कर्म करता है, लेकिन उसकी आत्मा अकर्ता बनी रहती है, क्योंकि वह फल की आसक्ति से मुक्त होता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक दिखाता है कि जब व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर को समर्पित कर देता है और फल की आसक्ति छोड़ देता है, तब वह कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन से मुक्त रहता है।

Bhagwat Geeta | भगवत गीता अध्याय 4 के श्लोक 21-30 हिंदी में

श्लोक 21

अर्थ:
जो व्यक्ति इच्छाओं से मुक्त है, जिसने अपने मन और आत्मा को वश में कर लिया है और सभी प्रकार के परिग्रह (संग्रह) को त्याग दिया है, वह केवल शरीर के पालन के लिए कर्म करता है और पाप से बचा रहता है।

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि जिसने अपनी इच्छाओं और संग्रह की प्रवृत्ति को छोड़ दिया है, उसका कर्म शुद्ध और पवित्र होता है। वह केवल शरीरधारण के लिए कर्म करता है और उसे पाप का बंधन नहीं लगता।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक बताता है कि जब व्यक्ति अपनी इच्छाओं और संग्रह की आदत छोड़ देता है, तो उसके कर्म उसे बंधन में नहीं डालते। वह पवित्र जीवन जीता है।

श्लोक 22

अर्थ:
जो व्यक्ति सहजता से प्राप्त वस्तु में संतुष्ट है, जो द्वंद्व (सुख-दुःख) से परे है, जिसे ईर्ष्या नहीं है, और जो सफलता और असफलता में समान रहता है, वह कर्म करता हुआ भी बंधन में नहीं पड़ता।

व्याख्या:
भगवान समझाते हैं कि एक संतुलित मन वाला व्यक्ति जो सांसारिक सुख-दुःख और ईर्ष्या से परे है, वह बिना किसी आसक्ति के कर्म करता है और मुक्त रहता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक सिखाता है कि संतोष, समभाव, और द्वंद्व से परे होने से व्यक्ति बंधन से मुक्त हो सकता है।

श्लोक 23

अर्थ:
जिसका संग (आसक्ति) समाप्त हो चुका है, जो मुक्त है, और जिसका चित्त ज्ञान में स्थित है, उसके द्वारा यज्ञ के लिए किया गया कर्म पूरी तरह समाप्त हो जाता है।

व्याख्या:
भगवान कहते हैं कि ज्ञान में स्थित व्यक्ति के द्वारा किए गए कर्म यज्ञ (समर्पण) का हिस्सा बन जाते हैं, और उसे बंधन से मुक्त कर देते हैं।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक दिखाता है कि जब व्यक्ति ज्ञान और त्याग की स्थिति में पहुँचता है, तो उसके सभी कर्म यज्ञ का रूप ले लेते हैं।

श्लोक 24

अर्थ:
यज्ञ का अर्पण ब्रह्म है, हवन की सामग्री ब्रह्म है, और ब्रह्म की अग्नि में हवन भी ब्रह्म द्वारा ही होता है। उस व्यक्ति को ब्रह्म प्राप्त होता है जो ब्रह्म में स्थित होकर कर्म करता है।

व्याख्या:
यह श्लोक यज्ञ के अद्वैत (एकता) सिद्धांत को दर्शाता है। जब हर कर्म ईश्वर को समर्पित होता है, तो यह ब्रह्म के प्रति समर्पण का प्रतीक बन जाता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक अद्वैत की भावना को प्रकट करता है, जिसमें सब कुछ ब्रह्म के रूप में देखा जाता है।

श्लोक 25

अर्थ:
कुछ योगी देवताओं के प्रति समर्पण भाव से यज्ञ करते हैं, जबकि अन्य ब्रह्म की अग्नि में यज्ञ के माध्यम से ही यज्ञ करते हैं।

व्याख्या:
यह श्लोक विभिन्न प्रकार के यज्ञों की व्याख्या करता है। कुछ लोग देवताओं को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ करते हैं, जबकि अन्य ब्रह्मज्ञान को पाने के लिए।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक दिखाता है कि यज्ञ के भिन्न-भिन्न रूप होते हैं, जो व्यक्ति की भावना और उद्देश्य पर निर्भर करते हैं।

श्लोक 26

अर्थ:
कुछ लोग श्रवण आदि इंद्रियों को संयम की अग्नि में आहुति देते हैं, जबकि अन्य लोग इंद्रियों के विषयों, जैसे शब्द आदि, को इंद्रियों की अग्नि में आहुति देते हैं।

व्याख्या:
यह श्लोक विभिन्न यज्ञों की व्याख्या करता है। एक प्रकार का यज्ञ इंद्रियों का संयम है, और दूसरा इंद्रियों के विषयों को इंद्रियों की अग्नि में समर्पित करना है। दोनों ही आत्म-नियंत्रण और साधना के रूप हैं।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक दिखाता है कि आत्म-संयम और इंद्रियों के विषयों का त्याग भी यज्ञ का रूप है, जिससे आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है।

श्लोक 27

अर्थ:
कुछ लोग सभी इंद्रियों और प्राणों के कार्यों को आत्म-नियंत्रण के योग की अग्नि में अर्पित करते हैं, जो ज्ञान से प्रज्वलित होती है।

व्याख्या:
यहाँ भगवान बताते हैं कि सच्चा साधक वह है जो अपने कर्मों और इंद्रियों को ज्ञान की अग्नि में समर्पित करता है। यह समर्पण उसे आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक आत्मसंयम और ज्ञान की महिमा को दर्शाता है, जो साधक को मुक्ति की ओर ले जाती है।

श्लोक 28

अर्थ:
कुछ साधक द्रव्य यज्ञ, तप यज्ञ, योग यज्ञ, स्वाध्याय (शास्त्रों का अध्ययन) यज्ञ और ज्ञान यज्ञ करते हैं। ये सभी दृढ़ व्रतधारी होते हैं।

व्याख्या:
यह श्लोक विभिन्न यज्ञों को सूचीबद्ध करता है, जो साधकों द्वारा किए जाते हैं। ये सभी यज्ञ उनके व्यक्तिगत साधना के मार्ग और आत्मा की शुद्धि का माध्यम हैं।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक यह सिखाता है कि यज्ञ के अनेक रूप होते हैं, और सभी का उद्देश्य आत्मा को शुद्ध करना और ईश्वर के करीब लाना है।

श्लोक 29

अर्थ:
कुछ लोग प्राण को अपान में और अपान को प्राण में समर्पित करते हैं, और प्राणायाम के अभ्यास के माध्यम से प्राण और अपान की गति को रोकते हैं।

व्याख्या:
यह श्लोक प्राणायाम साधना का महत्व बताता है। इसमें प्राण और अपान के संतुलन को आत्मनियंत्रण और आत्मज्ञान प्राप्त करने का साधन माना गया है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक प्राणायाम की महिमा और उसके योगी के जीवन में महत्व को स्पष्ट करता है।

श्लोक 30

अर्थ:
कुछ लोग नियमित आहार के माध्यम से प्राणों को प्राणों में समर्पित करते हैं। ये सभी यज्ञ को समझने वाले हैं और यज्ञ के द्वारा अपने पापों को नष्ट कर देते हैं।

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि आहार और जीवन शैली का संयम भी यज्ञ का रूप है, और इससे साधक अपने पापों को समाप्त कर सकता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक दर्शाता है कि संयमित जीवन और आहार भी साधना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो आत्मा को शुद्ध करता है।

Bhagwat Geeta | भगवत गीता अध्याय 4 के श्लोक 31-42 हिंदी में

श्लोक 31

अर्थ:
जो लोग यज्ञ के बाद बचे हुए अमृत (पवित्र भोजन) का सेवन करते हैं, वे सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। हे कुरुश्रेष्ठ! यज्ञहीन व्यक्ति के लिए न यह लोक है और न ही परलोक।

व्याख्या:
भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में यज्ञ के महत्व को बताते हैं। यज्ञ केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि का माध्यम है। इसके बिना जीवन अधूरा और अर्थहीन हो जाता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक दर्शाता है कि यज्ञ से बचे हुए पवित्र आहार को ग्रहण करने से आत्मा को शुद्धि मिलती है और व्यक्ति ब्रह्म की ओर अग्रसर होता है। यज्ञ के बिना कोई लोक या परलोक प्राप्त नहीं हो सकता।

श्लोक 32

अर्थ:
इस प्रकार, यज्ञ के अनेक प्रकार ब्रह्मा के मुख से प्रकट हुए हैं। इन सभी को कर्मजन्य समझो। हे अर्जुन! इन्हें जानकर तुम बंधन से मुक्त हो जाओगे।

व्याख्या:
यह श्लोक यज्ञ के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करता है और इसे कर्म के रूप में स्वीकार करता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि यज्ञ के स्वरूप को समझने से आत्मज्ञान प्राप्त होता है और मुक्ति का मार्ग खुलता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक सिखाता है कि यज्ञ के सभी रूप ब्रह्मा के मुख से प्रकट हुए हैं। इसे समझने से व्यक्ति आत्मबोध और मुक्ति की ओर बढ़ता है।

श्लोक 33

अर्थ:
हे परंतप (अर्जुन)! द्रव्य से किए गए यज्ञ से ज्ञान का यज्ञ श्रेष्ठ है, क्योंकि सभी कर्म ज्ञान में ही समाप्त होते हैं।

व्याख्या:
श्रीकृष्ण इस श्लोक में ज्ञानयज्ञ की महिमा बताते हैं। द्रव्य या बाहरी वस्तुओं का त्याग महत्वपूर्ण है, लेकिन सच्चा यज्ञ आत्मज्ञान है। यह सभी कर्मों का अंतिम उद्देश्य है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक यह समझाता है कि ज्ञान का यज्ञ सर्वोपरि है, क्योंकि यह सभी कर्मों को समाप्त करके आत्मा को मुक्त करता है।

श्लोक 34

अर्थ:
उस ज्ञान को ज्ञानी और तत्त्वदर्शी महापुरुषों से प्राप्त करो। उनके पास विनम्रता, सेवा, और प्रार्थना के साथ जाओ। वे तुम्हें ज्ञान प्रदान करेंगे।

व्याख्या:
यह श्लोक गुरु और शिष्य के संबंध को दर्शाता है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को सिखाते हैं कि सच्चा ज्ञान गुरु की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है, और इसके लिए विनम्रता व सेवा भाव आवश्यक हैं।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक गुरु के महत्व को बताता है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनम्रता, प्रश्न, और सेवा का भाव जरूरी है।

श्लोक 35

अर्थ:
हे पाण्डव! उस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद तुम पुनः इस प्रकार के मोह में नहीं फँसोगे। उस ज्ञान से तुम सभी जीवों को अपने और मुझमें देखोगे।

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञान की पूर्णता और उसके प्रभाव को दर्शाता है। आत्मज्ञान से व्यक्ति का मोह समाप्त हो जाता है और वह सभी जीवों को एकता के दृष्टिकोण से देखता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक बताता है कि आत्मज्ञान से व्यक्ति अपने अंदर और भगवान में सभी जीवों को देख सकता है। इससे मोह समाप्त हो जाता है।

श्लोक 36

अर्थ:
यदि तुम सबसे बड़े पापी भी हो, तो भी ज्ञान की नौका के द्वारा सभी पापों से पार हो जाओगे।

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञान की शक्ति और उसकी पवित्रता का महत्व दर्शाता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि सच्चा ज्ञान किसी भी पाप को नष्ट कर सकता है, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो। यह आत्मा को शुद्धि और मुक्ति प्रदान करता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक ज्ञान के प्रभाव को दर्शाता है। ज्ञान के द्वारा व्यक्ति अपने सभी पापों को समाप्त कर सकता है और मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 37

अर्थ:
हे अर्जुन! जैसे प्रज्वलित अग्नि लकड़ियों को भस्म कर देती है, वैसे ही ज्ञान की अग्नि सभी कर्मों को नष्ट कर देती है।

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञान की शक्ति को अग्नि के रूप में प्रस्तुत करता है। ज्ञान आत्मा के अज्ञान को समाप्त करता है और व्यक्ति को पवित्र और मुक्त करता है। यह कर्मों के बंधन को जलाकर राख कर देता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक ज्ञान को अग्नि के समान मानता है, जो सभी कर्मों को नष्ट कर व्यक्ति को शुद्धि प्रदान करता है।

श्लोक 38

अर्थ:
इस संसार में ज्ञान के समान कोई भी पवित्र वस्तु नहीं है। जो योग के द्वारा सिद्धि प्राप्त करता है, वह समय आने पर इस ज्ञान को अपने हृदय में अनुभव करता है।

व्याख्या:
यह श्लोक ज्ञान की सर्वोच्चता को व्यक्त करता है। भगवान कहते हैं कि ज्ञान ही सबसे बड़ा पवित्र साधन है, जो साधना और समय के साथ आत्मा में प्रकट होता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक यह सिखाता है कि ज्ञान ही सबसे पवित्र और श्रेष्ठ है, जो साधना और समय के साथ आत्मा में जाग्रत होता है।

श्लोक 39

अर्थ:
श्रद्धा रखने वाला, ज्ञान के प्रति समर्पित और इंद्रियों को संयमित करने वाला व्यक्ति ज्ञान को प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त करके वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त करता है।

व्याख्या:
यह श्लोक सिखाता है कि श्रद्धा, समर्पण और इंद्रियों का संयम ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं। ज्ञान के माध्यम से व्यक्ति जीवन में शांति और संतोष प्राप्त करता है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धा और संयम की आवश्यकता को दर्शाता है। ज्ञान के द्वारा व्यक्ति परम शांति को प्राप्त करता है।

श्लोक 40

अर्थ:
जो अज्ञानी है, श्रद्धा रहित है और संदेहपूर्ण मन वाला है, वह नष्ट हो जाता है। उसके लिए न यह लोक है, न परलोक, और न ही सुख।

व्याख्या:
यह श्लोक अज्ञान और संदेह के परिणामों को स्पष्ट करता है। भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति के मार्ग में संदेह करता है, वह न वर्तमान जीवन में सुख प्राप्त करता है और न ही परलोक में।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक बताता है कि अज्ञान और संदेह मनुष्य को हर प्रकार के सुख और समृद्धि से वंचित कर देते हैं।

श्लोक 41

अर्थ:
हे धनंजय (अर्जुन)! जिसने योग के द्वारा कर्मों को त्याग दिया है, जिसका संदेह ज्ञान के द्वारा नष्ट हो चुका है, और जो आत्मा में स्थिर है, उसे कर्म बांधते नहीं हैं।

व्याख्या:
यह श्लोक बताता है कि जो व्यक्ति ज्ञान और योग के द्वारा अपने संदेह को समाप्त कर चुका है और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर चुका है, वह अपने सभी कर्मों के बंधनों से मुक्त हो जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए कर्म निष्प्रभावी हो जाते हैं।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक यह सिखाता है कि योग और ज्ञान के माध्यम से आत्मा को जानने वाला व्यक्ति कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है और जीवन में पूर्ण स्वतंत्रता का अनुभव करता है।

श्लोक 42

अर्थ:
इसलिए, हे भारत (अर्जुन)! अपने हृदय में बसे अज्ञान से उत्पन्न संशय को ज्ञान की तलवार से काटकर योग में स्थिर हो जाओ और उठ खड़े हो।

व्याख्या:
श्रीकृष्ण अर्जुन को प्रोत्साहित करते हैं कि वह अपने हृदय में बसे अज्ञान और संशय को ज्ञान के माध्यम से समाप्त करे। योग का पालन करते हुए, उसे अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। यह आत्मविश्वास और संकल्प का आह्वान है।

Explanation in Hindi:
यह श्लोक अर्जुन को प्रेरित करता है कि वह अज्ञान और संशय को समाप्त करके अपने कर्म-पथ पर अग्रसर हो और योग का अभ्यास करे।

सारांश:

अध्याय 4, “ज्ञान कर्म संन्यास,” में भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञान और यज्ञ के महत्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने कर्म और ज्ञान के बीच संतुलन, गुरु की आवश्यकता, और आत्मज्ञान की शक्ति को समझाया। श्रीकृष्ण ने बताया कि सच्चा ज्ञान सभी कर्मों को समाप्त कर सकता है और व्यक्ति को आत्मा के स्तर पर स्थिर कर सकता है।

अध्याय 4 पर आधारित 5 प्रमुख FAQs (सामान्य प्रश्न):

प्रश्न: अध्याय 4 का मुख्य विषय क्या है?

उत्तर: अध्याय 4 का मुख्य विषय “ज्ञान और कर्म का संन्यास” है, जिसमें भगवान ने ज्ञान और यज्ञ के महत्व, कर्मों के प्रति दृष्टिकोण, और आत्मज्ञान के माध्यम से मुक्ति प्राप्ति का मार्ग बताया है।

प्रश्न: ज्ञान को सर्वोच्च क्यों माना गया है?

उत्तर: ज्ञान को सर्वोच्च इसलिए माना गया है क्योंकि यह अज्ञान और कर्मों के बंधन को समाप्त करता है, जिससे व्यक्ति आत्मा के स्तर पर स्थिर होकर मुक्ति प्राप्त करता है।

प्रश्न: भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु के महत्व पर क्या कहा है?

उत्तर: श्रीकृष्ण ने कहा कि ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है। विनम्रता और सेवा भाव से गुरु के पास जाकर ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।

प्रश्न: संशय का क्या प्रभाव होता है?

उत्तर: संशय व्यक्ति को आत्मज्ञान और मुक्ति के मार्ग से भटकाता है। संशय के कारण न तो इस लोक में सुख प्राप्त होता है और न ही परलोक में।

प्रश्न: कर्म और योग का संबंध क्या है?

उत्तर: कर्म और योग का संबंध यह है कि योग के माध्यम से कर्मों का त्याग करके व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है और कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है।

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